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Sapna (Beena) Khandelwal

Abstract Tragedy Others

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Sapna (Beena) Khandelwal

Abstract Tragedy Others

ये कैसी प्रगतिशीलता

ये कैसी प्रगतिशीलता

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ये कैसा अंधकार है

      ये कैसा गुबार है

  ये कैसी प्रगतिशीलता

     ये कैसा विकास है।

 जो जिंदगियों को लील

     रहा बेहिसाब है।

 प्राण वायु की जो

      मसीहा रही,

  छांव आंचल की जो

       देती रही,

 कर दोहन उसी का

    हुआ अब तू बेनकाब है।

 और पाने की तेरी

      इंतहा ही हो गई,

  रे मनुज, तेरे लालच की तो

    हद ही पार हो गई।

  धरा से वृक्ष कट रहे

      सांसों के पल घट रहे,

 ना जाने किसकी नजर लगी

 अंबर पर धूम, धूल की चादर तनी।

      रंग नीला खो गया

     नयनों से  ओझल हो गया ,

 रंग बदलते बदरा वो

    ना जाने, कहां को खो गए।

 कविताओं के विषय बन

     कविताओं में ही रह गए।

 तू ही एकाकी है नहीं

     आवागमन के चक्र में ,

 असंख्य जीव जंतु भी फंसे

    तेरे इस कृत्य में।

 जो गुनाह किया नहीं

 सजा उसकी, हो गई।

 पवन, कितनी जहरीली हुई

 गलतियां, तेरी भारी तुझ पर ही हुईं।

  अछूता, नहीं तू भी इससे रह पा रहा ,

 धीमा विष शनै शनै सांसों में जा रहा।

    विष के इस प्रहार से ,

 बच, न तू अब पाएगा।

  संभल जा, अभी भी नहीं तो

    सर्वनाश तेरा हो जाएगा।


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