एक विवाद: धर्म और धन के बीच
एक विवाद: धर्म और धन के बीच
एक दिन पैसे ने धर्म से कुछ यूं कह दिया,
ये जहां है मेरा तेरा मोल है क्या,
तू तो बातें पुराने ज़माने की है,
तू बस किताबों में है चीज़ सुनाने की है,
तू जिस घर रहे ना तरक्की हो वहां,
तेरे आने से निष्क्रिय ही जाए जहाँ,
तेरी क़ीमत नहीं आज ज़माने में है,
तू बस दादी की झूठी कहानी में है,
जहां वास तेरा वो मेरा घर ही नहीं,
जहां मैं हूँ खड़ा बनते महल वहीं,
तेरे आने से लोग साधु बन चले,
और मैंने कई रंक राजा किए,
बिना मेरे इस जग में ना पत्ता हिले.
हर मंदिर में मुझको स्थान मिले,
मुझे पूजे जहाँ क्या तेरा काम वहां,
कौड़ियों में भी अब तेरा दाम कहाँ,
देख दम्भ भरा रूप पैसे का चढ़ा,
हँसते हुए धर्म ने उससे कहा,
मुझको चिंता नहीं मेरे मोल की सुन,
वो अनमोल हो गए जिनको लगी मेरी धुन,
मेरा मोल तो ज्ञानी सदा ही करें,
और तुझको सर पे सदा अभिमानी धरें,
तू पत्थर के मंदिर में बसता हो भले,
मेरा घर मन के मंदिर में ही बने,
मैंने माना महल तुझसे ही बनें,
पर परिवार की नींव मुझसे पड़े,
तूने रंक भले कई राजा किए,
पर सच्चे कई मन मैले कर दिए,
संसार में लोभ मोह तेरी देन है,
तूने छीनी मानवता लिया सुख चैन है,
तूने मानव की निष्ठा को कम कर दिया,
प्रेम बंधन मिटा कर अहम् भर दिया,
जहां पूजा हो तेरी मैं वहां जाता नहीं,
बिना ज्ञान के जीवन में आता नहीं,
तुझको पाकर भी सुख को पाना ना आसान है,
जिसने मुझे पा लिया सुख उसकी पहचान है,
जिस घर तू है बड़ा वो तेरे दास हैं,
जिसने समझा मुझे दौलत उनके पास है,
मेरा मोल ना लगा मेरा मोल नहीं,
जहां तू ना चले मेरा मोल वहीं।।
