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Kusum Joshi

Abstract

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Kusum Joshi

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वो काव्य नहीं लिख सकती हूँ

वो काव्य नहीं लिख सकती हूँ

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मन में मेरे भी भावों के गहरे गहरे सागर हैं,

प्रेम शान्ति की सीख जो देते वो मेरे भी आदर्श विचारक हैं,

पर उन विचारों पर रहकर मैं काव्य नहीं रच सकती हूँ,

भूखे नंगे बच्चों को श्रृंगार नहीं दे सकती हूँ,


कभी बिहारी के छन्दों को मैं भी गाया करती थी,

जीवन बस है प्रेम गीत ये ही समझाया करती थी,

फूलों के भंवरों के किस्से मैंने भी ख़ूब सुनाए हैं,

बसंत बहारों के मेले कविता में ख़ूब दिखाए हैं,


पर जब से जाना इतिहास कविता के छन्द बदल गए,

जो बिहारी के चारण थे भूषण के पथ पर निकल गए,

अब चाहकर भी मैं कविता में राग मलहार नहीं ला सकती हूँ,

वीरों की कुर्बानी पर श्रृंगार नहीं गा सकती हूँ,


जिनके रक्त रंगों से धरती आज तलक है सनी हुई,

ध्वजा हमारी आसमान में उनके कर्जों से है दबी हुई,

जो हँसते हँसते देश की ख़ातिर फांसी पर चढ़ जाते थे,

बिना दिखावे के केवल वसुधा से नेह लगाते थे,


उन वीरों के सपनों का भारत आज कहीं है दूर पड़ा,

झोपड़ पट्टी में बचपन को देखो कैसे निरीह खड़ा,

इन सूनी आँखों में मैं रसधार नहीं भर सकती हूँ,

तड़पती हुई ममता को मैं श्रृंगार नहीं कर सकती हूँ,


अब जो कविता मैं कहती हूँ देश की मेरे वाणी है,

समाज के दुःख तकलीफ़ों की एक सबल कहानी है,

फेसबुक और ट्विटर के बल पर जो देश चलाने वाले हो,

ए सी कमरों से तो निकलो जो देश बदलने वाले हो,


सच में देश नहीं है मुम्बई दिल्ली जैसे शहरों में,

देश देखना हो तो निकलो नक्सल वाले पहरों में,

बच्चों के हाथों में पिस्टल आज नहीं सह सकती हूँ,

दहशत में रहते बच्चे को श्रृंगार नहीं कह सकती हूँ,


जिस दिन गांधी की धरती पर गाँधी जीत मनाएंगे,

शेखर भगत सुभाष समां जब वीर यहां मुस्काएँगे,

जब वोटों के लालच में ना जन को बांटा जाएगा,

राजनीति का मुद्दा ना गौ माँ को समझा जाएगा,


उस दिन मेरे गीतों में फिर रस की बातें आएंगी,

मेघ मलहारों से आगे भी सरगम ख़ूब रिझाएगी,

लेकिन तब तक कलम ये मेरी बस आक्रोशित बोलेगी,

जो है नींव देश की अपने उस पर सबको तोलेगी,


जो रोक सको तो रोक लो मुझको कलम नहीं रुक सकती है,

कवि के आगे किसी राज की नीति नहीं चल सकती है,

ये गाएगी बस कविता वो जो देश की आँखें खोल सके,

मेरे भारत को जो फिर से एक सूत्र में जोड़ सके,


कलम नहीं ग़ुलाम किसी की ना सम्मान अभिलाषी है,

मेरी कविता तो बस मेरे देशप्रेम की प्यासी है,

कवि की इस कलम प्रतिष्ठा को बर्बाद नहीं कर सकती हूँ,

जब तक देश नहीं बदले श्रृंगार नहीं कह सकती हूँ।।


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