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विवेक वर्मा

Horror Abstract

4.8  

विवेक वर्मा

Horror Abstract

मेरी खामोशी और मैं

मेरी खामोशी और मैं

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मेरी खामोशी कहती है

तू अंदर ही अंदर इतना चिल्लाता क्यों है ?

जो वो गुजरती है तेरे दिल से

तो फिर खुद को बहलाता क्यों है ?


वो एक टूटता तारा थी

किसी और पहर आएगी,

तू तो रूठ के सो गया,

जो उसे किसी और ने मांग लिया तो

तू इतना झुंझलाता क्यों है ?


उसकी आँखों की चमक का

तू कई रंग हजार था,

उसके टूटते पलकों के बंद

आंखों का ख्वाब था।


उसके बिस्तर के सिलवटों का

इक तू ही ऐतबार था,

तू कहता फिरता है कि तू

उसकी रोशनी का चांद था।


गर उसे सूरज मिला तो तू

इतना तिलमिलाता क्यों है ?

मेरी खामोशी अक्सर मुझसे कहती है,

तू अंदर ही अंदर इतना चिल्लाता क्यों है ?


तेरे इश्क़ की बंधी थी वो तुझसे

मोहब्बत उसे भी बेशुमार थी,

लबों से उफ्फ ना करती थी,

आँखें तूने उसकी कभी पढ़ी न थी।


तुझे पता था क्या कि तेरी परवाह

कितनी बेपरवाह थी,

तेरी मनमानियां उसकी गीता और

तेरी मोहब्बत उसकी कुरान थी।


अपनी तकब्बुर में खुद को

उसका खुदा समझ बैठा तो

अब इतना पछताता क्यों है ?

मेरी खामोशी अक्सर मुझसे कहती है,

तू अंदर ही अंदर इतना चिल्लाता क्यों है ?


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