तब्सिरा-ए-इश्क़
तब्सिरा-ए-इश्क़
मिला जो इश्क़ से तो इक मशवरा दे दिया मैंने,
बड़ी आसान होती ज़िन्दगी जो तू नहीं होती।
सो भी जाता बिछा चादर खुले आकाश के नीचे,
ग़र बन चांदनी मेरी आँखों से तू नींदें छीन न लेती।
सुना था मैंने लोगों से दुआ सी इक दवा तू है
पढ़ भी लेता तेरा कलमा जो तू ये पीर ना देती।
वहम है लोगों को के तू असर है बस जवानी का,
तड़पती रूह को देखा है तू कैसे वश में है करती।
भयंकर राक्षसी सी एक प्रवृति है छिपी तुझमे,
अलग होने पे खुद से तू मनुष को जिंदा लाश कर देती।
अंतर-भीत से जो प्रीत का है बीज तू बोई,
जला तस्वीर उसकी राख करता जो जिगर में ना लगी होती।
गर यार का श्रृंगार कर तुझे कोई पहन लेता,
बन दूजे नाग की नागिन तू उसको भी है डस लेती।
मिली जो फिर से है मुझसे तो तेरी औकात सुन ले तू,
अब मेरी हर कहानी में पोशाक सा ही है सृजन करती।
