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Kumar Vikrant

Horror

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Kumar Vikrant

Horror

स्याह रात

स्याह रात

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सर्दी की स्याह रात 

चारों तरफ 

पसरा सन्नाटा 

उस उजाड़ बस्ती के 

इस छोर से 

उस छोर। 

गहरी धुंध 

में लिपटी 

उस उजाड़ बस्ती की 

उजड़ी गलियां 

टूटे-फूटे घर 

घरो में माओं 

के सीने से लिपटे 

डरे-डरे से बच्चे 

रुदन उनका गूँजता 

उजाड़ गलियों 

इस छोर से 

उस छोर। 

गिने-चुने 

घरों के बाहर 

टूटे-फूटे 

छप्परों में 

जर्जर काया में 

अपने प्राणों को समेटे 

कुछ बूढ़े 

अपने कभी न लौटने वाले 

युवा बेटों का इंतजार करते 

उस बस्ती के इस छोर से 

उस छोर। 

बस्ती से लगे बियाबान में 

वो रुग्ण सा विलाप 

आज फिर 

गूँज रहा है 

उस बियाबान के इस छोर से 

उस छोर। 

अमावस की रात की स्याही 

से स्याह वो निर्जन पगडंडी 

उस पर 

बरसती धुंध की ठंडी बूँदें

अचानक बिखरने लगी 

पगडंडी के इस छोर से 

उस छोर। 

रुग्ण विलाप 

तेज होता हुआ 

बढ़ता हुआ उस बस्ती की और 

पगडंडी पर छपते हुए 

न दिखने वाले वो पैर 

बढ़ते हुए उस बस्ती की और 

गूँजती हुई वो पायल की छम-छम 

बढ़ती हुई उस बस्ती की और 

सदियों पुरानी उस दुल्हन का साया 

आज फिर छा रहा है उस बस्ती पर 

लगता है आज फिर 

मौत नाचेगी उस बस्ती में 

इस छोर से 

उस छोर। 


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