चार दीवारों में
चार दीवारों में
सपना तो बहुत से आते हैं,
पर सच तो वही होते हैं
जो सोने तक नहीं देते हैं।
डर लगता है कि कहींं सपना झूठ न हो जाए
इंतजार होती उस पल की
जब सपना मेरा यह सच हो जाए,
शक होता की क्या हो पाएगा कभी ऐसा
पर विश्वास होता की,
झूठा ना जाएगा मेरा यह भरोसा।
वह सपना है कुछ ऐसा
जो भूला देता है खाना पीना,
लत लग जाए उसकी तो
हकीकत बन जाति है उस मंजिल से मिलना।
पर जब आगे बढ़ना चाहा
तो दिखा कुछ ऐसा,
की चार दीवारोंं में फसी हूं मैं
जो जाने से पूछता है,
तुम बढ़ चली हो कहां?
तुम्हारे शक्ल पर यह खुशी कैसा ?
समाज क्या कहेगा ?
क्या कहेंगे येे लोग
बंद करो येे ढोंग
और एक बार सोचो
की आगे तुम्हारा क्या होगा ?
कुछ तो लिहाज करो अपनो का
क्या होगा तुम पर उनकेे सपनों का,
तजुर्बा है बहुत कम तुम्हारा
कोई न देगा तुम्हें सहारा।
यह सपना है
और सपना ही रहने दो,
इसे अपने जीवन का
लक्ष्य का स्थान मत दो।
दिल से इसका
सच होने की बात निकाल दो,
और समाज का तुम पर
आशाओं का ध्यान दो।
यह चार दीवारी हमें
इतना कुछ कह जाती है,
और हम तन मन प्राण से
इस सपने को सपना ही रहने देते हैंं।
जब यही चार दिवारी तुम्हें सताए
तो काश कोई उसे बताए,
भले ही वो जाने से रोकेगा
पर उड़ने से वह कभी ना टोक पाएगा।
भलेे ही वो
समाज का डर दिखाएगाा,
पर हमारे सपनोंं को
कभी न तोड़ पाएगा।
भले ही वो
"अपनोंं" के नाम का अस्त्र छोड़ेगा
पर सामर्थ्य के ब्रह्मास्त्र के सामने
वो कभी न टिक पाएगा।
भले ही वो
आगेे का रस्ता नहीं देगा
पर उन्हें तोड़ आगेे बढ़ने पर
वह हमको सलामी दे जाएगा।