शादी : मर्यादा का चंदन!
शादी : मर्यादा का चंदन!
बन्धन सप्तपदी का समझो,
मर्यादा का चंदन है।
ब्रम्हचर्य तज घर जीवन में,
आपका वंदन, अभिनन्दन है।।
दो कुलीन परिवार हैं मिलते,
नीड़ नया निर्माण वे करते।
कुल परम्पराओं के बल पर मिल,
इस समाज को विकसित करते।।
नर - नारी का शिष्ट मिलन सुख,
कुदरत का अनुपम उपहार।
मैथुन- क्रीड़ा नहीं चरम सुख,
नहीं छोड़ना शिष्टाचार।।
अगर न बंधते एक सूत्र में,
बढ़ता रहता फिर व्यभिचार।
नथ उतरा करते गलियों में,
नारी सहतीं अत्याचार।।
काम - ज्ञान का मिला रसायन,
यह समाज का है उपहार।
तुम नर हो ना हो वात्स्यायन,
पशु से अलग करो व्यवहार।।
नारी अंग सुकोमलता की,
उनकी चाह भी कामुकता की।
आवश्यकता भी है सृष्टि सृजन की,
नाद - रंग मानव जीवन की।।
सोचो अपने घर से जब-जब,
बिटिया विदा हुआ करती हैं।
अश्रुधार बह पड़ता है तब,
पिया के संग जब वे जाती हैं।।
समय लगाकर पंख उड़ चला,
कुंएं में समझो विष भरा पड़ा।
सदाचार ने बदला पाला,
कदाचार अब कूद पड़ा।।
कभी मार दी जाती कुछ बहुएं,
दान - दहेज़ की चाहत में।
कभी झेलती हैं वे लानत,
कन्या शिशु पैदा करने में।।
भंग अनवरत है अनुशासन,
बदल चला है जीवन यापन।
सेक्स जो मर्यादित था, पावन,
'लिविंग' का आया अब नंगापन।।
सोचो, हे नर सोचो, समझो,
तोड़ सको तो तोड़ो भ्रम को।
तजो - तजो इन काम सुखों को,
रोक सको तो विघटन रोको।।