सेनारी का फैसला
सेनारी का फैसला
न्यायधीश अंधे,
राजनेता बहरे,
प्रशासन गूंगी-बहरी दोनों
इनसे न्याय की आशा करने वाले
बेवकूफ ! प्रचंड मूर्ख।
सामाजिक न्याय –झांसा।
सेनारी, बारा या सिन्दुआरी
बीभत्स !
पहले था जंगल राज
अभी भी है
अमंगल राज।
नक्सलियों द्वारा
जातीय हिंसा, सैनिक संहार और
बलात्कार – परम दुष्ट !
और तुम्हारा मौन ?
जान कर भी अनजान
यही है साँठ-गाँठ।
यही है भ्रष्टाचार॥
शस्त्र और शास्त्र
पर था जिनका एकाधिकार !!
उनसे
लूट लिए हथियार
लूटी अस्मत
हर लिए प्राण –
फाड़ डाले पेट, निकाल ली आँखें।
फिर भी मौन-
अरे, निष्क्रिय जिंदा लाश के समान
बाभनों।
कहाँ गयी तुम्हारी रार ?
बहुतेरे हैं तेरे नेतागण
बिरादर !
कोई सम्राट, कोई लक्ष्मीपति
कोई डाइमंड!!
राम, रामाश्रय जैसी संपदा तुम्हारी
फिर भी कोई काम न आया।
विधवाओं का क्रंदन,
निर्दोष, बेसहारा का कोई सहारा न बना
हाँ, ये सब घड़ियाल निकले ॥
सेनारी हत्याकांड के तुरंत बाद
एक अपढ़-गँवार मूर्खा ने कहा था
सेनारी क्यूँ जाऊँ ?
वोट तो वे हमें देते नहीं ।
निर्दयी, क्रूर व अत्याचारी
कंस और जरासंध का नाश करने
आया था एक और परशुराम-
वह भी छला गया अपनों से
अपनों से ही
हाँ- हाँ अपनों से।