बच्चे
बच्चे
बचपन में,
बैलगाड़ी में बैठकर,
बुआ जी के घर जाना,
अच्छा लगता था।
रेलगाड़ी की खिड़की वाली
सीट पर
बैठने के लिए झगड़ना,
अच्छा लगता था।
स्कूल से
इमली तोड़ने के लिए
भागना
अच्छा लगता था।
आजकल
अकेलापन ही
अच्छा लगता है।
मोबाइल गेम
लीव इन रीलेशन
का फैशन है ।
माता-पिता को
बच्चों की शादी का टेंशन है।
बच्चे अब बच्चे नहीं रहे
माता-पिता अधेड़ से वृद्ध हो रहे
लेकिन
उनका बचपना नहीं जा रहा।
वे अपने बच्चों को
बच्चे ही समझते रहे।
पता नहीं,
बच्चे कब इतने बड़े हो गए !
बचपन है तो भोलापन है,
सनोलापन है
सरलता है, सादगी है।
बड़ों के पास तो
चालाकी है, धूर्तता है
वैमनस्य है, बर्बादी है।
ये पीढ़ियों का अंतर है,
अपने समय की बात है
बच्चों - तुम्हीं बताओ, यह कैसा
विकासवाद है !