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Vijay Kumar parashar "साखी"

Abstract Tragedy

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Vijay Kumar parashar "साखी"

Abstract Tragedy

अपनों की बेरुखी

अपनों की बेरुखी

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अपनों की बेरुखी से पेट भर चुका हूं

भीतर ही भीतर रो-रो कर थक चुका हूं,

हम जिंदा जरूर है,परन्तु जीते नही है

आंखों से आँसू भी अब सूखा चुका हूं


स्वार्थ के खंजरों से छलनी हो चुका हूं

अपनों के पत्थरों से शीशा तोड़ चुका हूं

हर महफिल में, मैं रोज हँसता भले हूं,

पर भीतर से बहुत तन्हा हो चुका हूं


अब और किसी का सहारा नहीं चाहिये,

खुद से ही अब मैं तो बेघर हो चुका हूं

अपनों की बेरुखी से पेट भर चुका हूं

भरी बारिश में सूखा ही जल चुका हूं


खुद को मना ले, दूसरों को कर किनारे,

ख़ुद की दोस्ती से ख़ुद जिंदा हो चुका हूं

लोगो की बेतुकी बातों को दरकिनार कर,

ख़ुद की भीतर से अब लौ चला चुका हूं


कोई भी नही चलेगा, अंत मे साथ तुम्हारे

अब ये बात में भली भाँति समझ चुका हूं

अपनों से अब मोह-ममता हटा चुका हूं

टूटे पत्थरों से अब खुद को सजा चुका हूं



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