ज़ख़्मी आँखें
ज़ख़्मी आँखें


ये आँखें भी ज़ख़्मी हैं जमाने से, बस
आँसू रिसते हैं खून जम जान के बाद।।
चाहते भी थे दर्द कराहने को, मगर
निकल ना सके , होंठ सी लेने के बाद।।
आवाज़ दिया था मैंने तुमने सुना भी था
तमासबीन बन खड़े थे मेरे लूट जाने के बाद।।
ख़ाहिशों को दबोच रखा था फेफड़ों में मैं
आज खोजता हूँ आह निकल जाने के बाद
फ़िक्र क्या बोल कर दिल को झुठलाता हूँ
मान भी जाता है वो बहलाने के बाद।।
बड़े सलीके से रोती है ये आँखें आजकल
मुस्कुरा देते हौले से जाहिर होने के बाद।।
मुस्कुराने के लिये वजह हो या ना हो
बेवजह मुस्कुरा देते दर्द रूबरू के बाद।।
मुड़ के देखोगी ज़रूर सोच रखा था मैंने
आँखें बिछाये बैठा हूँ , तेरे जाने के बाद।।
आओगी ज़रूर एक दिन, दिल कहता है,
कहीं ये ना हो कि मेरे जनाज़े के बाद।।