सच को भला मैं क्या आईना दिखाऊँ
सच को भला मैं क्या आईना दिखाऊँ
सच को मैं भला क्या आईना दिखाऊँ
मैं जब खुद ही हूँ अंजान तो
सही गलत में फर्क क्या बताऊँ
मैं जीने की कला क्या सिखाऊँ।
लिखता हूँ मन के भावों को
खुद को टटोलने की खातिर
नग्न है जो समाज पहले से
उसको मैं क्या कपड़ा उढ़ाऊँ।
जिसके सुख में हूँ शामिल
उसके दुख मैं कैसे भूल जाऊँ
खाया जिस देश का नमक
उससे गद्दार कैसे हो जाऊँ।
बहन-बेटी की लूटती अस्मत पर
कैसे न मैं आवाज उठाऊँ
रिश्ते ही रिश्तों के खून के प्यासे
देख आँखों से कैसे न मैं ठिठक जाऊँ।
गरीबी और लाचारी की जंजीर में जकड़े
बाल मजदूर को देख आँख पे पट्टी चढ़ाऊँ
जो करता है मुझसे प्रेम फिर भला
मैं क्यों न उससे प्रीत है निभाऊँ।
बढ़ती बेरोजगारी पर भी
मुँह पर रख उंगली चुप्पी साध जाऊँ
देख कलयुग की ये भयंकर माया
मैं भला क्यों न अंजान बन जाऊँ।।