रात रोती है
रात रोती है
सांझ ढली दीप जले
पंछी नीड़ को चले
गायों को लेकर
ग्वाले गाँव को चले।
सर्वत्र तम छाया
तारे आये चाँद आया
चाँदनी आई
धीरे धीरे
रात पर खुमारी छाई।
धरा से गगन तक
सब निद्रा मग्न हो गया है
सिर्फ चाँद जाग रहा है
रात को अपनी उपस्थिति से
खुशनुमा बना रहा है।
घास पर बिखरी
शबनम को देख
चाँद के मन में
हर सुबह
एक सवाल उठता है कि
रात आखिर रोती क्यों है।
चाँद रात से सवाल करता है
रात तुम रोती क्यों हो
रात जवाब देते हुए चाँद से
कुछ यूँ कहती है,
अनाथ आश्रम के बच्चे
रात को जब
माँ की गोद में सोने को तरसते हैं
तब मैं रो पड़ती हूँ।
वृद्धाश्रम में रहते बुजुर्गों की आँखें
रात के अंधेरे में जब
अपनों की याद में भर आती हैं
तब मैं रो पड़ती हूँ।
साल भर खून पसीना
बहा कर भी किसान
फसल के सही दाम न मिलने पर
आत्महत्या को मजबूर हो जाते हैं
तब मैं रो पड़ती हूँ।
सरहद पर हताहत
सैनिकों के परिजन
रात को जब
याद में बिलखते हैं
तब मैं रो पड़ती हूँ।
दरिंदगी की शिकार बनी
नन्ही बच्ची जब दर्द से
तड़पती है
तब मैं रो देती हूँ।
दिन भर मजदूरी के बाद भी
मजदूर अपने बच्चों को
आधा भूखा सुला कर दुखी होते हैं
तब मैं रो पड़ती हूँ।
स्कूल जाने की उम्र में
नन्हे बच्चों को
भीख माँगते, श्रम करते
जब देखती हूँ
तब रो पड़ती हूँ।
नन्ही बच्चियों को शोषित होते
देह व्यापार करते
जब देखती हूँ
तब मैं रो पड़ती हूँ।
हर सुबह मेरे अश्रु
शबनम बन जाते हैं
घास पर बिखर जाते हैं।।