दायरा
दायरा
घर?
उसका घर?
उसका अपना घर?
हाँ, बचपन मे कभी उसका घर था...
जहाँ वह एक राजकन्या जैसी थी...
बड़ी होते होते उसे कहा जाने लगा
की तुम्हें दूसरे घर जाना है....
वहाँ तुम्हारा ही राज होगा....
नौकरों की फ़ौज तुम्हारे आगे पीछे होगी....
वे सब तुम्हारे हुक्म की तामील करेंगे....
और सुन सुन कर वह ढेर सारे ख़्वाब सजाते जाती....
जिंदगी में ख़्वाब और हक़ीक़त रेल की पटरियों जैसे होते है....
साथ होकर भी दूरी बनाकर रहते है.....
शादी के बाद घर मिला....
ढेर सारा प्यार भी मिला.....
लेकिन सब कुछ एक दायरे में!
दायरे के बाहर जाना?
नहीं!
कभी नहीं!!
एकसाथ कॉलेज में पढ़ते हुए कब प्यार हुआ...
फिर शादी.....
तुम अपने ऑफिस में तरक्की करते हुए आगे बढ़ते गए .....
और मैं?
घर गृहस्थी और बच्चों के पीछे भागती रही...
वही एक दायरे में रही....
जब भी शाम को यूँहीं बैठी होती हूँ ...
तुम ऑफिस की बात करने लगते हो
मैं अनमनी होकर सुनती हूँ ....
मेरे अनमनेपन को तुम पढ़ लेते हो...
अच्छे मूड में तुम कहने लगते हो...
तुम उदास रहने लगी हो....
मेरे होते हुए तुम्हें डिप्रेशन?
कुछ दिनों बाद तुम उकताकर कहने लगते हो...
'यह डिप्रेशन वाला नाटक बंद करो..
मैं तुम्हारे साथ हर वक़्त बैठा नहीं रह सकता हूँ....
मुझे ढेरों काम होते है...
ऑफिस, घर और सोशल सर्कल...
तुम घर और बच्चों का ही ध्यान रखती हो बस...'
मैं फिर अपने दायरे में सिमटती जाती हूँ.....
मैं अब जान लेती हूँ डिप्रेशन को....
वह यूँ ही किसी को अपने दायरे में नहीं लेता है...