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राहुल द्विवेदी 'स्मित'

Classics

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राहुल द्विवेदी 'स्मित'

Classics

पुनः युधिष्ठिर छला गया है

पुनः युधिष्ठिर छला गया है

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पुनः शकुनि की कपट-चाल से, एक युधिष्ठिर छला गया है ।


घर-घर वही हस्तिनापुर सी, कुटिल विसातें बिछी हुई हैं ।

चौसर-चौसर छल-छद्मों से, ग्रसित गोटियाँ सजी हुई हैं ।

दरबारी हैं विवश सभा में, कौन धर्म का पाँसा फेंके

कौन न्याय अन्याय बताये, सबकी आँखें झुकी हुई हैं ।

लगता है चेहरों पर इनके, रंग स्वार्थ का मला गया है।

पुन: शकुनि की.............


जो रहस्य द्वापर में थे वे कलयुग में अति गूढ़ हुए हैं ।

जाने क्या है पाण्डु पुत्र सब, यों कर्तव्यविमूढ़ हुए हैं ।

समझ रहा है कर्ण निरन्तर,धूर्त कौरवों की सब चालें

किन्तु पाण्डव नियति-चक्र पर आँख मूँद आरूढ़ हुए हैं ।

फिर से कोई गांधारी सुत, लाक्षागृह को जला गया है।

पुनः शकुनि की.............


दुःशासन हर तरफ ताक में, सहमी-सहमी द्रुपद सुताएँ ।

अंधे राजतन्त्र के सम्मुख, नग्न रो रहीं मर्यादाएँ ।

कृष्ण लगाये रुई कान में, आँखों पर बाँधे हैं पट्टी

नहीं देखते-सुनते कुछ भी, विनय, याचना, करुण व्यथाएँ ।

मौन खड़े हैं भीष्म द्रोण सब, दाँव अनूठा चला गया है।



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