पतझड़
पतझड़
जब तक मैं हरा भरा था, घना था
फूल, पत्तियों और फलों से लदा था
तो सभी को पसंद था
और सबका आकर्षण भी था
सब मदद के लिए मेरे पास आते थे
कोई छाया लेने आता तो कोई फल
किसी को पत्तियों की ज़रूरत थी
तो किसी को फूलों की
और मैं निःस्वार्थ सबका साथ देता
अपनी दोस्ती बखूबी निभाता
उनकी खुशियों में ही अपनी खुशियां ढूंढ लेता था।
मगर आज...
आज समय बदल गया है
मेरा भी और उनका भी
आज मैं अकेला रह गया हूँ
मेरी खूबसूरती झड़ गयी है
अब मैं अपने दोस्तों के किसी काम का नहीं
जो कल मेरे पास आते थे
आज पास से ही अनजानों की तरह गुज़र जाते हैं
उन्हें कोई परवाह ही नहीं है अब मेरी
आखिर कैसे समझाऊं उन्हें
पतझड़ आखिर किसके जीवन में नहीं आता।
आज मुझे उनके साथ की ज़रूरत है
मेरे जीवन में फिर बसंत लौट कर आएगा
और मैं फिर उभर कर आऊंगा
फ़िर हरियाली देने लग जाऊंगा
उन सबके फिर किसी काम आऊंगा
पर शायद...
सभी वर्तमान में जीना चाहते हैं
स्वार्थी हो कर रहना चाहते हैं
भविष्य की किस को फ़िक्र है
कल मैं यहाँ और वो जाने कहाँ
क्या काम आऊंगा दोबारा उनके
शायद सही कहते हैं
आख़िर कल किसने देखा।