कोहरा
कोहरा
दिसंबर की इस
ठिठुरती कंपकंपाती सर्दी में ,
निकली हूं घर से
अपने काम पर जाने को ।।
कोहरे की चादर ने जहाँ
पूरे शहर को ढंका है ,
वहीं अगले ही कदम नजर नहीं आता
कि रास्ता कहाँ है ।।
बर्फीली हवाएं शरीर को
कुछ ऐसे चीर रही हैं ,
जैसे मुझे आगे बढ़ने से
रोक रही हैं ।।
पल -पल डर सता रहा है
कि कहीं कोई अनहोनी ना हो जाए ,
और समय भी तो
बार -बार अपनी याद दिला रहा है ।।
मगर मैं भी धीरे -धीरे
इस कोहरे को पार कर आगे बढ़ रही हूं ,
सही सलामत समय से पहुँच जाऊंगी
बस यही आशा बांध रही हूं ।।
एक ख्याल आ रहा है -
रजाई में बैठ चाय की चुस्की लेना ही सही है ,
वहीं दूजे ख्याल ने टोका -
तुमने ही तो खुद अपनी राहों को चुना है।।
आराम और आलस से कभी
कहाँ कोई कुछ सीख पाया है ,
जो घर से निकल गया
उसने ही अपनी मंजिल को पाया है ।।
अरे !आशा ना थी जिसकी
अब अचानक वो हो रहा है ,
सूरज की हल्की -हल्की गरमाहट से
कोहरा अब कमज़ोर हो रहा है ।।
इस छोटी से किरण से
मन में मेरे बड़ा हौंसला आ गया है ,
जो मंजर अब मेरे सामने है
उसने मेरा आत्मविश्वास और बढ़ा दिया है।।