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Meenakshi Gandhi

Others

4.7  

Meenakshi Gandhi

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कोहरा

कोहरा

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दिसंबर की इस

ठिठुरती कंपकंपाती सर्दी में ,

निकली हूं घर से

अपने काम पर जाने को ।।


कोहरे की चादर ने जहाँ

पूरे शहर को ढंका है ,

वहीं अगले ही कदम नजर नहीं आता

कि रास्ता कहाँ है ।।


बर्फीली हवाएं शरीर को

कुछ ऐसे चीर रही हैं ,

जैसे मुझे आगे बढ़ने से

रोक रही हैं ।।


पल -पल डर सता रहा है

कि कहीं कोई अनहोनी ना हो जाए ,

और समय भी तो

बार -बार अपनी याद दिला रहा है ।।


मगर मैं भी धीरे -धीरे

इस कोहरे को पार कर आगे बढ़ रही हूं ,

सही सलामत समय से पहुँच जाऊंगी

बस यही आशा बांध रही हूं ।।


एक ख्याल आ रहा है -

रजाई में बैठ चाय की चुस्की लेना ही सही है ,

वहीं दूजे ख्याल ने टोका -

तुमने ही तो खुद अपनी राहों को चुना है।।


आराम और आलस से कभी

कहाँ कोई कुछ सीख पाया है ,

जो घर से निकल गया

उसने ही अपनी मंजिल को पाया है ।।


अरे !आशा ना थी जिसकी

अब अचानक वो हो रहा है ,

सूरज की हल्की -हल्की गरमाहट से

कोहरा अब कमज़ोर हो रहा है ।।


इस छोटी से किरण से

मन में मेरे बड़ा हौंसला आ गया है ,

जो मंजर अब मेरे सामने है 

उसने मेरा आत्मविश्वास और बढ़ा दिया है।।



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