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Kunda Shamkuwar

Abstract Romance Fantasy

4.7  

Kunda Shamkuwar

Abstract Romance Fantasy

पहाड़ की मोहब्बत

पहाड़ की मोहब्बत

2 mins
479


राह के पत्थरों को रौंदते हुए... 

और कभी सहलाते हुए...

अपने रास्ते की रुकावटों से बेपरवाह...

कल कल बहती यह आज़ाद नदियाँ...


नदियाँ होती ही है बेलगाम...

इसी बेपरवाही में वह सब कुछ भूल जाती है...

अपनी सारी कड़वाहट और कुछ मिठास भी...

अपने मीठेपन को जानते हुए वह भागी जा रही है उस खारें समंदर में समाने के लिए…

बावजूद वह खारापन उसकी मीठी शख़्सियत को फ़ना कर देगा...

अपनी ही रौ में बह निकलती है यह चंचल नदी.......

और कल कल बहती नदी जा मिलती है उस खारे समंदर से....

बेशक वह रास्ते में पूजी जाती है....

उसपर ग्रंथ लिखे जाते हैं…

वह किसी बड़े नाम से पहचानी जाती है...

लेकिन …

उस खारे समंदर से मिलने के बाद न तो नाम बचता है और न ही चेहरा…

क्या है ये ?

किसी चंचल, अल्हड़ प्रेम की बेचैनी…?

बिना शर्त वाला प्रेम…?

या प्रकृति प्रदत्त बेबसी....?

या फिर समा जाने की बेताबी...? 

जिसमें कुछ खोने का ग़म नहीं बस पाने की ख़ुशी रहती है …


ऐसा नहीं की पहाड़ को चाह नहीं थी नदी की चंचलता की.... 

उसे भी नदी की बेताबी खूब पसंद थी....

ऐसा भी नहीं की पहाड़ के पास कुछ नहीं था.... 

वह तो बेहद ऊँचा था.... 

आसमाँ से भी ऊँचा होने की ख़्वाहिश रखने वाला....


पर हाँ …

नदी के चाह वाली समंदर सी गहरायी कहाँ थी उसके पास....?

पहाड़ के पास ना तो वह गहरायी थी और ना ही वे बेक़ाबू लहरें भी...

बेताब नदी की उस चाह को पहाड़ बस देखता रह गया.... 

निश्छल....

निशब्द.... 

सारे दुःखों को अपने में समेटकर ...

बिना किसी शिकवा और शिकायतों के.... 

समंदर के खारेपन में तबदील हो जाने वाली उस मीठी नदी को....

अप्राप्ति के भाव से पहाड़ बस देखता रह गया.... 

क्योंकि पहाड़ को भी इल्म है.... 

इस जहाँ में किसी को जमीं मिलती है तो किसी को आसमाँ....  

यूँ ही नहीं किसी बड़े दुःख को पहाड़ सा दुख कहा जाता है.... 

और सर्वस्व लुटाकर कुछ प्राप्त करने के सुख को मोहब्बत….


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