पहाड़ की मोहब्बत
पहाड़ की मोहब्बत
राह के पत्थरों को कभी रौंदते हुए...
और कभी सहलाते हुए ...
अपने रास्ते की रुकावटों से बेपरवाह...
कल कल बहती आज़ाद नदियाँ ...
नदियाँ होती ही है बेलगाम...
इसी बेपरवाही में वह सब कुछ भूल जाती है ...
अपनी सारी कड़वाहट और कुछ मिठास भी...
अपनी ही रौ में बह निकलती है यह चंचल नदी ........
और कल कल बहती नदी जा मिलती है उस खारे समंदर से....
उसे पता है कि बेशक मीठी होने के बावजूद
जिस समंदर में समाने के लिए भागी जा रही हूँ वह खारा है …
उसकी शख़्सियत को वह फ़ना कर देगा …
बेशक वह रास्ते में पूजी जाती है....
पहचानी जाती है…
उसपर ग्रंथ लिखे जाते हैं …
लेकिन …
उस खारे समंदर से मिलने के बाद न तो नाम बचता है और न ही चेहरा…
क्या है ये ?
किसी चंचल , अल्हड़ की अपरिपक्व बेचैनी …?
बिना शर्त प्रेम …
जिसमें कुछ खोने का ग़म नहीं होता है पर बस पाने की ख़ुशी रहती है …
प्रकृति प्रदत्त बेबसी ?
या समा जाने की बेताबी?
ऐसा नहीं की पहाड़ को चाह नहीं थी नदी की चंचलता की....
नदी की बेताबी उसे भी खूब पसंद थी....
ऐसा भी नहीं की पहाड़ के पास कुछ नहीं था....
वह तो बेहद ऊँचा था....
आसमां से भी ऊँचा होने की ख़्वाहिश रखने वाला....
पर हाँ …
नदी के चाह वाली समंदर सी गहरायी तो नहीं थी उसके पास....
बेताब नदी की उस चाह को पहाड़ बस देखता रह गया....
निश्छल....
निशब्द....
समंदर के खारेपन में तबदील हो जाने वाली उस मीठी नदी को....
सारे दुःखों को अपने में समेटकर ...
बिना किसी शिकवा और शिकायतों के....
अप्राप्ति के भाव से पहाड़ बस देखता रह गया....
क्योंकि पहाड़ को भी इल्म है....
इस जहाँ में किसी को जमीं मिलती है तो किसी को आसमां....
यूँ ही नहीं किसी बड़े दुःख को पहाड़ सा दुख कहा जाता है....
और सर्वस्व लुटाकर कुछ प्राप्त करने के सुख को …
मोहब्बत ….

