मंथन
मंथन
सुधा गरल दोनों मेरे अंतस में निहित
स्वयं की श्रेष्ठता सिद्ध करने को आतुर
विचारों को बंधक बनाना चाहते,
चाहते हैं मेरे हृदय पर आधिपत्य स्थापित कर
अपनी विजय पताका लहराना...
इतना सरल न होगा युद्ध यह
विचारों को गुजरना होगा मंथन से.. आत्ममंथन से!
तब विलग होंगे पयोधि और विष
अमृत तो स्वीकार्य होगा... परंतु विष ? विषपान कौन करेगा ?
मेरे अंतस में बसे काम, क्रोध, लोभ, मोह
के ज़हर को कहो कौन पियेगा ?
कहीं गरल मेरे संपूर्ण अस्तित्व को विषाक्त तो नहीं कर देगा?
फिर भयातुर हिय भ्रमित हो चला...
मंथन के पश्चात भी उचित मार्ग नहीं सूझा।
अचानक उन्होंने विषपान कर लिया
मेरे हृदय,मेरे विचारों को विष मुक्त कर दिया !
स्मृति लोप हुई जो समझ न सकी मैं मूढ़
सब कुछ भीतर ही तो है.. अमृत,विष और मेरे शिव !
मन के भावों, एहसासों को सहजता की माला में पिरोती,
अंतर्मन में अनुभव सहेजती, ज्यों सीप में दमकता मोती !