नफरत का शैतान
नफरत का शैतान
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ना रंजिशें जलाते हो, ना इंतकाम जलाते हो,
नफ़रत की आतिश में ना जाने कितने मकां जलाते हो!
कुछ ख़्वाब, कुछ ख्वाहिशें, मुंतजिर जलाते हो,
मज़हब की भड़की आग में, कितने दुकां जलाते हो!
हिमाकत, सियासत, नफरत की आंधी खूब चलाते हो,
कहीं हिचकी, कहीं सिसकी, इंसान से इंसां लड़ाते हो !
धर्म की टूटी मजार पर, आहें सजाते हो,
दफ्न कर इंसानियत फिर, कब्रें बनाते हो !
क्या खूब मंजर हर दशहरा, रावण का पुतला खामखां जलाते हो,
पूछो भला क्या कभी अंदर बैठा नफ़रत का शैतान जलाते हो?