निर्लज्ज व्योम संस्कारी धरा 2
निर्लज्ज व्योम संस्कारी धरा 2
अलसाई "उषा" उठी, अंगड़ाई अलभोर।
बाहर उठते शोर ने, उसे दिया झकझोर।8।
अंग वस्त्र दूरस्थ थे, बिखरे सैय्या छोर।
किंचित चिंतित लालिमा, लोल कपोल विभोर।9।
जान अनावृत की दशा, सकुचाई असहाय।
कमल-नयन द्वि खोजते, प्रियतम हेतु सहाय।10।
आह! गेह के पट खुले, चिंता रेख ललाट।
मुरझाती जस कुमुदिनी, जोहत रवि की वाट।11।
युवती कैसे कर सके, उठकर बंद किवाड़।
शील और सहचर्य का, हास्य बनाएंं भांड़।12।
मुखमंडल रक्तिम हुआ, उषा क्रोधावेश।
प्रियतम "सूर्य" समीप तो, होता भस्म अशेष।13।
कलरव बाहर बढ़ रहा, मन में उठा विचार।
सुता "धरा" को बुलाना ,क्या अनुचित आचार।14।
उसकी निजता में नहीं, क्या होगा व्यवधान।
हो सकता है पूछ ले, कहां गए परिधान।15।
क्रमश: आगामी अंक में रविवार दिनाांक 21/3/21