निर्लज्ज व्योम संस्कारी धरा 4
निर्लज्ज व्योम संस्कारी धरा 4
कृत्य किया आकाश ने, सोची "धरा" विदीर्ण।
उच्श्रंखल व्यवहार ये, मेरे लिए अजीर्ण।22।
"व्योम" पिता "आकाश" का ,देख रहा निर्लज्ज।
सुत को वह रोका नहीं, कर्म अनैैतिक सज्ज।23।
"प्राची" की संवेदना, सेेे "उषा" कृतकृत्य ।
मुस्काई संकोच से ,शर्मसार वक्तव्य।24।
पुरुष सदा रखते नहींं, मर्यादा का ध्यान।
स्त्री केेेे संकोच का उन्हें न होता भान।25।
बाहर बेटी "धरा" की, सुन सिसकियाँ अधीर।
पट शरीर झट डालती, दौड़़ पड़ी जस तीर।26।
तनया कुछ बोलेे नहीं ,अश्रुपात अविराम।
पीड़ा मुख से झलकती, छवि धूमिल कुछ श्याम।27।
रथाारूढ़ पति "सूर्य" था, दिशि पश्चिम गंतव्य।
पुत्री पर अपराध को, मान रहा भवतव्य।28।