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निखिल कुमार अंजान

Tragedy

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निखिल कुमार अंजान

Tragedy

नदी हूँ मैं

नदी हूँ मैं

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मैं नदी हूँ

मधुर स्वर मे

कलकल कर बहती हूँ

हिमालय से उद्गम हुआ

मैदानी क्षेत्रों मे सदियों से


निरंतर मै बहती हूँ

दुर्गम पथ पार कर

सदैव निर्मल रहती हूँ

पशु पक्षी पेड़ पौधे मानव की

प्यास बुझाने को तत्पर रहती हूँ


जीवनदायिनी मैं कहलाती 

आस्था का प्रतीक मान पूजी जाती

भागीरथ प्रयास से धरा पे लाए 

शंकर मुझे अपनी जटा में समाए


मंथन कर मेरा कितने रत्न है पाए 

हे मानव कद्र तुम मेरी कर न पाए 

कूड़े करकट से भर दिया मुझको

अस्तित्व पर मेरे ही संकट छाए


बहाव मे मेरे उत्पन्न अवरोध किया

फैलाव को मेरे सिकोड़ दिया

मैं नदी हूँ तुम्हारी माँ जैसी हूँ

सब कुछ सह चुप रहती हूँ।


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