मुझ में बीते थे जो
मुझ में बीते थे जो
मुझ में बीते थे जो, जिनमें बीती थी मैं
लम्हे वो काग़जों पर सजाती रही
स्नेह से सिक्त पाती तेरे नाम की
खुद ही गाती खुद ही को सुनाती रही
(1)
तुम ना कहना जताया नहीं था कभी
प्रेम प्रस्ताव हाँ कुछ अलग था मेरा
रूठने और मनाने की नादानियाँ
मीठी झड़पों में था नेह मेरा घिरा
अब भी ठहरी हूँ मैं उस हसीं वक़्त में
जाने कितनी घड़ी बीत जाती रही
स्नेह से....
(2)
साथ तेरा था केसर की जैसे कली
मुझको थोड़ा ही थोड़ा सा हर दम मिला
मन मेरा हो गया दर्द का अंबुधि
कितनी बूँदों का मैं तुझसे करती गिला
चाहे जितने भी सावन हृदय में घिरे
होंठ से पर सदा मुस्कुराती रही
स्नेह से....
(3)
विस्मृति में नहीं चैन ढूँढा कभी
एक उत्सव सा तुझको जिया हर सहर
श्वास के गीत सा आता जाता रहा
गुनगुनाती रही तुझको आठों प्रहर
जीत जाना भी मुमकिन था शायद मेरा
शौक से मैं मगर हार जाती रही
स्नेह से....

