देहरी के दीप
देहरी के दीप
वे जो प्रति पल मोम जैसे
स्वयं को पिघला रहे हैं
उन दृगों की देहरी के
दीप सज, इठला रहे हैं
(1)
सज रहीं तोरन सी जिनके व्योम पर आकांक्षाएं
सिंधु की गहरायी से भी ढूँढ लें संभावनाएं
जिन पदों के वास्ते कोई शिखर अंतिम नहीं है
स्वयं से ही कर रहे हैं नित नयी प्रतियोगिताएं
लक्ष्य के अतिरिक्त जिनके
दृश्य सब धुँधला रहे हैं
उन दृगों की देहरी के
दीप सज, इठला रहे हैं
(2)
बूँद जिनके स्वेद की बनकर महकती होम चंदन
विघ्न से होता शिथिल जिनका नहीं है कर्म स्यंदन
जो हुनर से जानते चौबीस को पच्चीस करना
रश्मियों से पूर्व ही जो भोर को देते हैं स्पंदन
जो खगों को भी सततता
का नियम सिखला रहे हैं
उन दृगों की देहरी के
दीप सज, इठला रहे हैं