मन का पंछी
मन का पंछी
मन का पंछी रात रात भर,
परछाईं बोये।
और पड़ी चुपचाप बेबसी
चौखट पर रोये॥
मेघ खड़े झंझावातों के,
नीर बहाने को।
उर में उठे बवंडर भारी,
नींद उड़ाने को।
आँख बचाकर पीर दवा से,
घाव स्वयं टोये।
चाकू अपनी गर्दन लेकर
कद्दू से उलझे
लौकी बैठी आंख तरेरे
कैसे सब सुलझे
साथ धुएँ के बैठा चूल्हा,
बस रोटी पोये।
आहट पाकर अंगारों ने,
फिर करवट बदली।
नाव पहुँचकर मझधारे में,
फिर से है मचली।
चिंता को लादे मजबूरी,
अपने सिर ढोये।
मन का पंछी रात रात भर,
परछाईं बोये॥