महताब
महताब
कभी तो अब्र से बाहर आकर
वसल कर ए महताब,
मुख़्तसर वसल में कभी तो
दीद करा अपना असबाब।
तेरे बिना हर दिन यूँ बीता
जैसे युग बीते ए महताब,
कभी तो मुख़्तसर में आके
दीद करा जा महताब।
तू रूठा तो यूँ लगे जैसे
रूठी महबूबा महताब,
कभी तो अबसार की तरह
मुसलसल हो जा ए महताब।
"शाद" तेरे बिना
अधूरा है ए महताब,
कभी तो तसव्वुर
बहला जा ए महताब।।
