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Shoumeet Saha

Abstract Drama Others

4.5  

Shoumeet Saha

Abstract Drama Others

क्यों कहूँ मैं किस मिट्टी का बना हूँ?

क्यों कहूँ मैं किस मिट्टी का बना हूँ?

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क्यों कहूँ मैं किस मिट्टी का बना हूँ ?

है किस चीज़ से मतलब मुझे ज़िन्दगी में,

क्यों कहूँ मैं खुद में ही क्यों उलझा हुआ हूँ ?


है कुछ लोग खुश-मिज़ाज के 

मुझे खुश करने वाले,

कुछ ग़मज़दा मुझे 

ग़मगीन करने में लुत्फ उठाने वाले ,


है कुछ लोग मेरे लिए 

दुआ करने वाले,

कुछ मुझसे मेरी खुशियां 

छीनने में चुस्त,


है मुझे तजुर्बा अब तो इंसान के 

हर रंग-रूप से यहाँ,

क्यों कहूँ मैं इतना तनहा-रावी क्यों हुआ हूँ ?


है हर पल जैसे 

उन्हीं रास्तों का नया दरिया,

दरमियान जिनके शामिल है 

लोगों के रवैयों के बून्द,


इम्तिहान लेने आते है 

इक नए अंदाज़ से मेरे मिज़ाज के,

चलते जाते है जब देखे 

मुझे परेशानियों में धुत,


हाँ है कुछ शख्स जो शायद 

मुझे बचा भी ले इनसे,

शुक्रिया तो करूँगा मैं उनका,

पर क्यों कहूँ मैं इतना 

संभल-संभल के क्यों रहता हूँ ?


काश यह दुनिया 

ख़्

वाबों की तरह होती,

कुछ चीज़ें शायद 

आईने की तरह साफ़ होते,


ख़ालिस तो हम भी नहीं यहाँ,

नियातें-ए-लोगों के ही कहाँ होते,


आईने भी टूट जाते है जब 

टकराये किसी चीज़ से,

इतनी भी अगर समझ होती

तो दिल भी न टूटते,


ताने मारने और अफवाह फैलाने में 

लगे रहते है लोग 

जब बस न चले इनके मुझ में,


हर पल चाहे ये 

की बिखर जाऊँ पूरी तरह से 

और उभरने की ताक़त भी न रहे मुझ में,


फिर भी चलता रहता हूँ मैं बे-तवज्जोह 

अपने मंज़िल की ओर,

शायद खुद पर यकीन 

फिर से कय्यूम कर सकूँ,


पूछते है वह मुझ से की 

किस बात का गुरूर है मुझ में,

किस लायक मैं की 

ज़माने में अपना नाम कह सकूँ?


खामोश खड़ा रहता हूँ बस सामने उनके,

आँखों से सारी बातें कहते हुए ,


नासमझ जो न समझ सके 

मेरे हौसलों की ताक़त,

क्यों मैं आखिर कहूँ उनसे की 

किस मिट्टी का बना हुआ हूँ ..?



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