गुम है..
गुम है..
कभी यूँ ही सोच में डूबे रहते हैं,
सोच जिसकी किसी बात से कोई ताल्लुक नहीं,
पर फिर भी ऐसे लगे की
खोए हुए ज़ेहन में वह सोच ही गुम है,
ज़माने जो बदले है,
ऐसे बदले है
जैसे दुनिया में इंसान तो है,
लेकिन अफ़सोस वह इंसान ही गुम है,
गए थे हम वापस उस इलाके पे अपने,
ढूंढ़ने घर अपना,
इलाके से जब गुज़रे तो पता चला की
अपना घर ही गुम है,
कैसे बताए अपनी पहचान किसी को,
जिस नाम से पहचान थी कभी,
आज लगे के जैसे
वह नाम ही गुम है,
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मजबूर होके जो हम पेशे-ए-मज़दूर बने,
इसी बहाने की कुछ कमा भी ले,
जब आए काम ढूंढ़ने तोह पता चला
की काम ही गुम है,
यूँ आफ़त तो आई लेकिन
हम फिर भी चलते रहे,
मंज़िल का तो पता न था
बस राहे बदलते गए,
लोगों से कभी पूछ लेते है की
क्यों न परेशान हो हम?
बेदर्द-ओ-बेरहम से ज़माने में
हर मशक़्क़त ख़ाक हो गई,
फिर याद आया की
इन लोगों से क्या पूछना,
इनके होंठों से निकले जवाबों में
हम से किए गए सवाल ही गुम है!