एहसास - ए - ज़ीस्त
एहसास - ए - ज़ीस्त


यूँ ज़हन में अपने झांक के देखे
तो बहुत शोर सा रहता है,
यह जगह है ही ऐसी
जिसे देख सारा बदन बेजान से रहने लगते हैं
काश इसका क़राबत दिल से
इतना गहरा न होता,
दोनों से निकलते आह
अब जुबां को कड़वा बनाने लगे हैं
ये इल्म हम सब को है
की इनकी अंदरूनी हालतें बदलना इतना आसान नहीं,
फिर भी न जाने क्यों लोग झूटी तसल्ली देने लगते हैं
कभी-कभी ऐसी दुआएं मांगता हूँ खुदा से
की खुदा भी परेशाँ हो जाये,
मुझसे शायद पूछता होगा खुदा
की आखिर वजह क्या थी इसकी?
और जवाब में मैँ कहूँ की
सहन नहीं होती ये दुनियां की आतिश-ए -महशर,
अब ये साँसेँ मेरी सुकून की ख्वाहिश करने लगती है!