बेदम आदम
बेदम आदम
वो सिर्फ
दुखी औरतों
को देख सुन कर
उनकी तरह ही सोच कर
उन्ही के जैसा
हो चला है।
वो अल सुबह
उठता है लिए हिसाब
पूरे दिन भर का
किसी मुनीम सा
और हो जाता है
मजदूर अपनी सोच
में लिपटे कर्म का।
दोपहर से
कुछ पहले होती हैं
उसके पास कुछ खुरचन
बड़बड़ाहट की
जिसे किलस्ती औरतों की मानिंद
बुहार कर बटोरा उसने ही
गैर जरूरी
जगहों में बेमतलब
घुस कर।
छौंक देते हुए
घुन्नी औरतों की तरह
लगाता है हिसाब
हर उस बात का जो
परोसी गयी थी किन्ही दिनों
बे लज्जत सी
दिल कि तराबी पर
पोपले मुंह मे
फिसलती जबान से।
सांझ में
दिन भर की
भरी हुई औरतों की बढी चढ़ी
बतकही सी होती हैं
उसके पास भी तमाम बातें
जो आखिर में आनी है
उसी के गिरेबान तक
जिसे झुंझला कर
झटकता चलता है वो
घर लौटते।
रात गहराते
मांजते जूठे बर्तन
पोछते चूल्हा,
समेटते रसोई वह
चिड़चिड़ी हताश औरत सा
ले आता है सारा हिसाब
फिर बिस्तर पर जताते
किस कदर थक गया है वो
इस बेहिसाब काम से
सुनाते हुए अहसासों को
यार कब जियेगे जिंदगी
अपनी।
रात के
गहरे अंधेरे में
औरत के पूरे होने की तरह
नींद में जाने से पहले
करवट बदल कर
वह नींद में बड़बड़ाता है
चाहता है गहरी नींद
मगर जाग जाता है
हल्की सी आहट पर।
उसे नींद में भी
खटका रहता है औरत सा
अपनी मिल्कियत के खो जाने का,
उन असबाब का जो वहां है
जिन्हें फिर से
सुबह उठ कर बुहारना है
संभालना है ,चलाना है
सदियों नए जैसा।
वो आदमी
उदास औरतों की सोहबत में
भूल गया है
उगते सूरज में पसीने की
चमक देखना,
वो भूल गया है कदमो के घिसने पर
किस्मत का बदलना
वो भूल गया है
निराशा के पहाड़ों को तोड़ना
वो भूल गया है
सूदूर तारों को देखना।
वो आदमी
जो मसलों का हल
होना था
जिसके कांधों पर
पीढ़ियों ने मुस्तकबिल
चूमना था
जिसने हंसते हुए हर सवाल
मिटाना था
वो नादां जनाना के
हवाले से आज बेदम
आदम हुआ है।
वो सिर्फ
दुखी औरतों
को देख सुन कर
उनकी तरह सोच कर
उन्ही के जैसा
हो चला है।