मेरी जान
मेरी जान
कितनी बार "मेरी जान" का टाईटल बदलते हो?
बचपन से लेकर बुढ़ापे तक हर पल अलग बोलते हो।
कभी,मां/बाप,तो कभी भाई बहन और कभी माशूका,
कभी रुपया पैसा तो कभी कभी" भगवान "जान बन जाते हैं।
पैदा हुए जिस मां से, खेले जिसकी गोद में
अमृत धारा से सींचे गए जिसके, वो जान
ही तो होती है, पल भर भी नजरों से दूर
हो जाए तो ये चैन कैसे खोती है?
जिस पिता के कंधे पर बैठकर दुनिया
देखते हो, घोड़ा बनाकर जिसे खेलते हो।
जो हर मुसीबत में तुम्हारी, चट्टान बन जाता है
वो हौले से कब तुम्हारी जान ही तो बन जाता है।
फिर दोस्ती बढ़ती है भाई बहनों से
कैसे पिटवाते ,कभी बचाते हैं वो गैरों से।
कब छोटी मोटी नोक झोंक करते वो
जान बन जाते हैं, ये उनसे दूर हो, हम समझ जाते हैं।
एक बार फिर से कोई अजनबी आकर दिल
चुराता है, वो आपके दिल की धड़कन बन जाता है।
सबके सामने कभी खुल कर, कभी शर्मा कर
आपका मन उसे अपनी जान बताता है।
फिर दौर आता है दुनियादारी का,
रुपया पैसा, माई बाप बनने लगता है
भावनाओं की जगह, तर्क हावी होने लगता है
और जान का रुतबा भी बदलने लगता है।
जो फायदा पहुंचाए, वो जान बनने लगता है,
करीबी रिश्तों को पहचान का दंभ निगलने लगता है।
आदमी दिन ब दिन, खुद में ही सिमटने लगता है।
लेकिन एक दिन, ये गुरूर, मक्खन की तरह पिघलता है।
अब की वाली जान, वो "खुदा "बनता है।
दोनों हाथ उठा, इंसान तौबा करने लगता है।
अपनी जान की भीख, उस "जान" से मांगता है।
जिसके होने से उसके भीतर की जान का सीना धड़कता है।

