लहज़ा
लहज़ा
ये उनका लहज़ा ही तो था, जिगर हम चाक कर बैठे,
अपनी हर खुशी एक आह पर, उनकी खाक कर बैठे,
न समझो हमको तुम अहमक,ओ बेदर्द जमाने वालो,
लहज़े की ही लज़्ज़त थी,जो अक्ल हम ताक रख बैठे।।
है मेरे दिल को सकूं इतना,कुछ उनसे हमने भी सीखा है,
नहीं बस इश्क़ में यूं अपनी, उम्र ये गुजर तमाम कर बैठे,
सलीका बस आ गया हमको,अब हंस कर जख्म लेने का,
अफसोस ये अपना सलीका,हम उनसे क्यूं आम कर बैठे।।
मुहब्बत में तो यूँ कहते कि,नफा नुकसान ये सब ज़ाहिद,
न जाने फिर भी क्यों ये सौदा, हम दिल के नाम कर बैठे,
जला जब आज मेरा आशियाना,खुद घर के इन चरागों से,
ये लहज़ा दिनेश कैसे बदले, फिर उनसे लिहाज़ कर बैठे।।