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Vijay Kumar

Tragedy

4.0  

Vijay Kumar

Tragedy

लाचारी

लाचारी

1 min
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लोगों की नजर में तन ढकने के लिए छोटी है

पर उसके तन पर तो वो एक पूरी धोती है

आंसू अपने पीकर वह कैसे मुस्कराती है

मन ही मन न जाने वह कितना रोती है,


हर जुल्म सहकर भी वह अपना कर्तव्य निभाती है

 ज़ख्म अपने देखकर वह हर पल सिसकती है

उसके आंसुओं पर मुस्कराने वाले ये नहीं सोचती है

 कि वहा भी तो किसी की अपनी प्यारी बेटी है,


हर शाम उसके अरमानो की बलि चढ़ती है

विश्वास, अपनत्व के नाम पर हर रोज छली जाती है

बहार सशक्तिकरण के लिए दुनिया शौर मचाती है

अंदर उसके हौसलों के पंख हर रोज कुतरती है,


अपना वज़ूद तलाशने के लिए कितना छटपटाती है

 बेटी, बहिन, बहु, मां और औरत के नाम पे आंसू बहाती है

 उसकी लाचारी की क्या कीमत दुनिया ने लगायी है

 तन ढकने के लिए वह तन को बेचकर आयी है,


लोगों की नजर में तन ढकने के लिए छोटी है

पर उसके तन पर तो वो एक पूरी धोती है।


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