क्यूँ
क्यूँ
ज़िंदगी के बीते हुए लम्हें स्मृतियों की संदूक में क्यूँ पड़े रहते है,
दर्द की ख़लिश क्यूँ नहीं होती दफ़न वक्त के गड्ढे में।
जज़्बे की कसौटी किए जाती है ज़िंदगी
हम क्यूँ बार बार नाकाम होते है,
रफ़्तार थमती नहीं संघर्षों के आबशार बहते ही रहते है,
लम्हा दर लम्हा क्यूँ गम की बदली छंटती नहीं।
सफ़र का पिछला दौर आज पर भारी है तप्त लम्हों की
कशिश दिमाग में घुटती ही रहती है,
क्यूँ हादसों की यादें बहते वक्त के साथ मिटती नहीं।
क्यूँ होता नहीं ऐसा कि खुशियाँ लिपटी रहे ताउम्र हमसे
हम मस्ती में झूमते रहते और दर्द की ख़लिश
हमें आहिस्ता आहिस्ता भूलती रहे।