क्यों नहीं
क्यों नहीं
भीड़ बहुत है यारा
रिश्तों की
सब अपने है
कहने को
पर इस भीड़ में भी
हर रिश्ता खड़ा
अकेला है
ढूंढते हैं कोई अपना
दो बात करने
दिल की
नकली मुस्कान
नकली हंसी
लिए खड़े
अपनों के बीच
निभाते रिश्तों की
हर मर्यादा को
पर इन अपने
रिश्तों का क्या
अपने है अपनों
के दर्द से अनजान
क्यों है
असली और नकली
मुस्कान पहचानते
क्यों नहीं
दिल में छुपे अकेले पन
को पहचानते
क्यों नहीं।