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Ravi Ghayal

Tragedy

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Ravi Ghayal

Tragedy

राही की आस

राही की आस

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इस सूने दिल की बगिया में,

शायद कोई आ कर फूल खिला दे,

इसी आस पर बैठा राही...

जीवन के दिन...

बसर कर रहा।


इस उजड़े घर के ऑंगन को,

शायद कोई आन बसा दे,

इसी आस पर बैठा राही...

कठिनाइयों को सहन कर रहा।

इन प्यासी शामों की कोई,

शायद आ कर प्यास बुझा दे,

इसी आस पर बैठा राही...

कब से था इन्तजार कर रहा।


भॅंवर में फंसीं नैय्या को कोई,

शायद आ कर पार लगा दे,

इसी आस पर बैठा राही...

बिन चप्पू की नाव खे रहा।


बुझते हुए दिये की कोई,

शायद आ कर लौ को बढ़ा दे,

इसी आस पर बैठा राही....

लौ को नहीं था बुझने दे रहा।


मगर...

काफी समय है बीता,

कोई नहीं है आया।

न तो फूल खिला बगिया में,

न ही किसी ने राही का है,

'घायल' उजड़ा अंगना बसाया।


न ही प्यास बुझी शामों की,

न ही किसी ने राही की नाव को,

'घायल' यारो पार लगाया।

बुझते हुए दिये की,

लौ को तो क्या बढ़ाना....

दिये का ही किसी ने,

नामों-निशां मिटाया।


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