मै मौन हो जाती हूँ
मै मौन हो जाती हूँ
मैं मौन हो जाती हूँ हमेशा,
पर मेरे समर्पण को मेरी कमज़ोरी मान लेते हैं,,
यह समाज अपनी अपनी परिभाषा मान लेते हैं,
जो मन कहे उसे पत्थर की लकीर मान लेते हैं,,
तुम अधूरे, मैं भी अधूरी हूँ एक दूजे बिन,
फिर भी खुद को सम्पूर्ण मान लेते हैं,,
ख़ामोशियों में छिपे दर्द को कोई नहीं समझता मेरे,
मेरे दर्द को बस एक बहाना मान लेते है,,
मैं टूटी हूँ फिर भी मुस्कुराती रहती हूँ,
अपने ज़ख्मों को खुद ही मरहम लगाती रहती हूँ,,
जो समर्पण किया, उसे मोहब्बत न माना,
मेरे मौन को बस मेरी कमजोरी ही जाना,,
फिर भी हर टूटन के बाद खड़ी हो जाती हूँ,
हर दर्द को सहकर भी खुद को पूरी बताती हूँ,,
मैं स्त्री हुं,
हर जंग अकेले ही लड़ जाती हूँ,,
