व्यथित नारी
व्यथित नारी
हाँ हूँ मैं नारी व्यथित
नहीं है व्यथा नई ये मेरी,
आ रही चली सदियों से,
है समाज पुरूष प्रधान,
हूं मैं खिलौना जिसका,
धुन होती सदैव पुरूष की,
पड़ता नाचना जिस पर मुझे।
भेज दिया गया मन्दिरों में,
नृत्य कर प्रसन्न कर ईश को,
किया नामकरण देवदासी,
लगे आने पुरूष मंदिरों में,
बनाने शिकार देवदासी को,
हवस का अपनी,
और हो गई मैं परिवर्तित बेचारी,
देवदासी से वेश्या में,
परन्तु रही छद्म वेश में देवदासी।
मुझ असहाय को देते पटक
दे लालच जीविकोपार्जन का,
कोठे पर किसी,
प्रशिक्षित कर नृत्यकला में,
लगाता बोली अधिक जो
डाल देते आगे उस भूखे के,
और मैं………………….?
मरती रहती हर रात,
जीने के लिये जीवन एक।
है गाथा मेरी पुरानी उतनी,
जितनी है ये सृष्टि,
होते रहे नामकरण नये नये,
बदलते रहे परिधान नये नये,
बदलते रहे नियम समाज के,
परन्तु मैं रही वही,
गिरी हुई नाचने वाली,
बेचने वाली शरीर पतिता,
असम्मानित नारी,
ख़रीदार शरीर का मेरे
पुरूष पाता रहा सम्मान।
दर्शन कराते हुए सच्चाई के,
चित्रित किया है चित्रकार ने,
व्यथा मुझ नारी क़ी,
पा रही प्रशिक्षण मै नृत्य कला का,
दे रहा थाप पुरूष ढोलक पर।
बैठीं अन्य नारीयॉं व्यथित,
हैं प्रतीक्षारत बारी की अपनी।।
