कुछ पता भी न चला
कुछ पता भी न चला
धीरे-धीरे तुम्हारी बातों की आदत हो गई मुझे,
और कब तुम्हारे ख्याल 'हम-ख्याल' हो गए,
कुछ पता भी न चला ।
यूँ तो बहुत सी राहें थीं, मेरे कदमों के लिए,
पर कब मेरे कदम तेरे 'हम-कदम' हो गए,
कुछ पता भी न चला ।
हँस रहे थे हम भी ज़माने के साथ,
पर कब ग़म से तेरे, आँख मेरी’ ‘ग़मगीन’ हो गई
कुछ पता भी न चला ।
चलते-चलते तपन भरी ज़िंदगी में साथ-साथ,
कब तुम्हारा साया ‘हमसाया’ बन गया
कुछ पता भी न चला।
कहाँ धरती, कहाँ आसमां? दूरी थी बहुत,
कब झुक आया आसमां पाषाणी कुचों पर,
कुछ पता भी न चला।
भावनाओं के गहराते मेघों से भीगी पीत धरती
कब हरी हो गई, नीलाकाश के सहवास से,
कुछ पता भी न चला।

