नारी विमर्श -हवा का रुख
नारी विमर्श -हवा का रुख
छितराया हुआ सा बादल,
ख्वाइशों का,
हवा के रुख ने ,
उसका रास्ता ही बदल दिया.
धुंधला चुकीं हैं ,
निगाहें अब तो तकते-तकते,
पर फिर भी कोशिश ,
रहती है पकड़ने की उसे,
हलक में फंसे काँटे की तरह,
क़तरा-ए-उम्मीद
अभी भी बाक़ी है,
कि शायद हवा ही उसे
मेरी झोली में डाल जाए
फिर से रुख बदलकर .
