कील
कील
एक कील भी आश्रयस्थली होती है
बहुतों की।
चाहे तस्वीर हो या कोई सामान
वह बेझिझक थाम लेती है हर किसी को
देती है राहत और सुरक्षा की भावना।
कील किसी से नाराज नहीं होती कभी
ना ही अपनी जिम्मेदारियों से हटती है पीछे कभी।
निभाती है अपनी हर जिम्मेदारी को वह बखूबी।
जब कोई दूर चला जाता है उससे तो
वह मौन धारण कर उसे जाते हुए देखती है।
क्योंकि वह जानती है कि
उसके निकलने से
दीवारों पर बदनुमा दाग बन जायेगा।
उसका दीवारों से जुड़े रहना उसकी
मजबूरी या नियति बन जाती है।
कितना अजब है न कि
जीवन में कुछ इंसान भी
इस कील की तरह ही होते हैं।
टिकाए रखते हैं रिश्तों को
देते हैं अपना खून-पसीना उन रिश्तों को
संभाले रखने के लिए।
एक कील की तरह ही वे भी
कर्म-पथ रूपी दीवारों पर गड़े रहते हैं।
पर जब कोई उन्हें छोड़कर
जाने की कोशिश करता है या चला ही जाता है
तब वे भी देखते रहते हैं
उस जाने वाले इंसान को।
चुप रहकर सहते हैं सारी वेदनाएँ।
जानते हैं वे यह बात अच्छे से कि
उनपर आश्रित अन्य व्यक्तियों के लिए
कील के समान उन्हें भी परिवार रूपी
दीवारों से जुड़े रहना है।
क्योंकि उनके जाने भर से ही
परिवार भी कील-उखाड़ी दीवारों की तरह
बदनुमा बन जाएगा,
उखड़ जाएगी परिवार की नींव भी
अपनी जगह से हमेशा...हमेशा के लिए।।