एक प्रेम ऐसा भी.....
एक प्रेम ऐसा भी.....
अक्सर खिड़कियों के कोनों को तलाशती वह
रख आया करती दाना पानी उन बच्चों के लिए
जिन्हें जन्मा नहीं उसने पर पालन का
जिम्मा धारण कर लिया था जिनका।
कई बार अपने बच्चों को खिलाते हुए सहसा
उन बच्चों को याद कर बड़बड़ा उठती वह।
आधे भोजन से उठकर देख आती अक्सर ही
सहेजकर रखे हुए उन दानों और पानी को,
भर आती उन मिट्टी की प्लेटों को
जो अब भी अधभरी ही रह गई थी।
यहीं सोच कर कि कहीं कम ना पड़ जाए
दाने उन बच्चों को या कि
शुरू ना हो लड़ाई उनके बीच
उन कमतर दानों को लेकर।
खिड़कियों पर जाली लगवाए जाने का
करती है भरसक विरोध वह ,
जानती है वह यह बात अच्छे से की
जाली लगवाने से वे बच्चे नहीं आ पाएंगे भीतर,
उनके भूखे रहने के विचार मात्र से
सिहर जाती है वह माँ।
वे भी जब भोजन करने आते हैं
तो निहार लेते हैं खिड़की के अंदर बैठी
अपनी पालनहार माता को।
अगाध दुलार लिए आंखों में,
मानो कह रहे हो उससे
कि हर जन्म में,हर रूप में
तुम ही हमारी माता बनकर आना।
और वह माता भी अपनी आंखों में
असीम ममत्व का भाव भरे
मानो सांत्वना देते हुए कहती हो उनसे,
कि चिंता मत करो, माँ जीवित है
और
सदैव अपने बच्चों के लिए जीवित ही रहेगी।
सच,
एक निस्वार्थ प्रेम ऐसा भी अनदेखा ही रह जाता है
दुनिया के व्यापार में।।