दुष्प्राय जीवन
दुष्प्राय जीवन
इक महल था वह
पर प्रतिबिंब झोपड़ी सी थी
रहते रहते
दरख्त के खोखली वलय में
ढूंढ़ती रही
परछाई अपनी
पर पा न सकी
हर क्लेश को
अन्तिम दर्द मान कर
झेलती रही
शायद इसका अन्त
किसी बिंंदु पर निहित हो
उस बिंदु को पा लिया मैनें
क्योंकि पहले मैं मकान में रहती थी
अब मुझे घर मिल गया है।