टिवंकल
टिवंकल


ऐ माँ देती हूँ मैं श्राप
हर माँ को कि हो जाये
हर कोख बाँझ और हो जाये
हर पुरुष नपुंसक
न तू हरे न उपजे न जने माँ...
फूल सी कोमल मैं पाक़ ओस
सी दूध पीती
मैं तो नन्ही बच्ची थी चिर मेरा हरण
हुआ ऐसे गिद्ध नोचे मेरा माँस जैसे...
कैसे रोज़ मालिस कर नहलाती थी
नज़र न लगे इसलिये काला
टीका लगाती थी, हर अंग मसल
दिया बाल तक गल गये ऐ री माँ
बहुत दुखा तेरी इस बच्ची को...
नहीं नहीं अब नहीं बस बहुत हुआ माँ
न तू मुझे अब जनेगी न मैं भोगूँगी
ऐ माँ देती हूँ मैं श्राप हर माँ को, कि
हो जाएँ हर कोख बाँझ....