कितनी हैवानियत
कितनी हैवानियत
आज के इस बसेरे मे
बेनकाब घूमते उन झुलम के चेहरो में
कितनी हैवानियत है
कलयुग के इस सवेरे में
नापाक उन चेहरों से पशुत्व क्यों टपकता है
आज अंधेरे में
कहां ढूंढू में इस अपवित्र सवेरे मे
इस धुम में ध्वस्तता की गंध है,
ना जाने प्रभु इस वक्त कहां बंद है
उस याद में सब धूमिल हो जाता है
जब 20 और 21 के
चेहरो का ऐसा रूप बाहर आता है
इंसान एक इंसान से खेलना चाहता है
और इस नादानी में हैवानियत का कहर नजर आता है
लेकिन अब इसकी चिंगारी भभक चुकी हैं
और हर नारी अब इसमें लिपट रही है
जिंदगी की राहों में धधकती एक आग है
बताओ तो जरा मुझे यह कहां का इंसाफ है!