नज़ारा
नज़ारा
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वो झूठ के सन्नाटे के बीच
सच को चिल्लाते देखा
फरेब के पर्दों में
विश्वास को समाते देखा
बदलते वक्त में
अपनों को पराए होते देखा
जहाँ अटूट विश्वास था
वहाँ विश्वासघात होते देखा
जहाँ हम सबसे ज़्यादा
महफूज़ हुआ करते थे
उसी जगह सबको
घात लगाते देखा
जो हमें समझते थे
उन्हें ही हमसे सवाल करते देखा
जो खुद बदनाम हो चुके हैं
उन्हें हमें समझाते देखा
जो लोग खुद नासमझ हैं
उन्हें समझदारी का ज्ञान बाँटते देखा
जो लोग जानते थे
कि हमें उड़ना पसंद हैं
उन्हें ही हमारे
पर काटते देखता
वो ढलते सूरज की रोशनी में
एक खूबसूरत नज़ारा देखा
जिनको कभी हम जानते थे
वहाँ एक के ऊपर एक चेहरा देखा!