ज़िन्दगी
ज़िन्दगी
जिस ख्वाब को कभी रोज़ देखा था
आज उसे खुद ही तोड़ दिया था
जिस रास्ते लिखी मेरी मंज़िल थी
उसी रास्ते को मोड़ दिया था
यूँ ज़िन्दगी से कभी दोस्ती थी
जो आज रूठ सी गयी है
हर मंज़र में एक उम्मीद थी
जो आज टूट सी गयी है
नजाने किस रास्ते
चलने को कह रही है
ए ज़िन्दगी,
तू किस तरफ बह रही है ?
हर रोज़ तुझसे दोबारा मिलना चाहा
मगर तू मिलती कहाँ है
वक्त के पौधे में पंखुड़ी है
मगर तू खिलती कहाँ है
क्यों तू मेरे सब्र को
हर रोज़ आज़माती है
फिर हमारा हाल देखकर
क्यों तू ही घबराती है
समझौता करने की
कोशिश करती हूँ
तुझसे ऐसे सवाल न पूछा करुँ
या खुद ही जवाब लिखने की...
कोशिश करती हूँ।