जुगाड़ के नक़ाब
जुगाड़ के नक़ाब


क्या पहनूँ मैं भला
ये जुठी जुगाड़ के नकाब
बड़ी घुटन होती हैं खुद से ही !
जिसे मंजिल समझ चल रहा था
वो खुद मंजिल की तलाश में था
दुनिया को भला और कितने नकाब में देखूँ
इतने नकाब में कितने पहचान देखूँ।
सोचता हूँ खुद भी
एक नकाब पहनूँ
पर फिर वहीं बात,
चेहरे नयाब मिलेंगे
नकाब लगाए चेहरे में।
कोई पहचान भी तो नहीं
पर नक़ाब उतारने के बाद
क्या होगा ?
वहीं शायद जो पहले था
तो हजार उलझनों को छोड़
किसी छोर को थाम लेते हैं।
दिल के घोंसले को उजाड़ कर
मोम में बत्ती सुलगाते हैं
किसी और रौशनी के लिए
खुद को पिघलाकर,
जलाते हैं।